ये जो आख़िरी है, वो ही निशान काफ़ी है…
हमारे बदले का सिर्फ, यही हिसाब काफ़ी है !!
क्यो बुलवाते हो गैरों से कि तुम हो…
हमे मारने का, यही ख़िताब काफ़ी है !!
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एक नये प्यार ने पुरानी
दोस्ती का भरोसा तोड़ दिया,
एक बेवफा लड़की के लिए बचपन
के दोस्त का साथ छोड़ दिया !!
चार दिवारी में रहते, चार लोग बेजान है,
शोर होता है फिर भी सब कुछ बड़ा सुनसान है !!
बात कोई करता नहीं सब लड़ने को तैयार है,
कब्र कोई दिखती नहीं पर घर दिखता श्मशान है !!
अमीर तो है महफूज़ यहाँ,
अपनों के संग समय बिता रहे !!
गरीब भूखे पेट कहाँ जाए,
जो सड़कों पर मजबूर चिल्ला रहे !!
एक वक़्त की रोटी के लिए,
ये गरीब हर रोज़ तड़पता है !!
मुस्कुरा कर फिर भी देश को,
खुद से पहले रखता है !!
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काँच सी है वो
एकदम पारदर्शी
कोई बनावट नहीं
कोई दिखावट नहीं
विनम्र है इतनी कि
भावुकता में टूट जाती है
नाराज़ होती है अगर
तो खुद से कहीं छूट जाती है…
जब किसी का घर सुलगते हुए,
किसी स्त्री का देह नोंचते हुए,
दुर्बल पर आघात करते हुए,
तुम्हारे हाथों की कंपन से,
देह अग्नि के भाती दहक ना उठे,
तो तुम सिर्फ पत्थर की मूरत हो !!
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एक अजीब सी चल रही ये लहर है,
हर तरफ बिमारी का कहर है !!
अब तो हवा में भी मिल रहा ज़हर है,
मातम में घिर चुका हर शहर है !!
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अगर दुनिया में रंग काला ना होता,
काजल लगा नयन प्याला ना होता !!
लगाती ना काला टीका माँ माथे मेरे,
तो इतना कभी मैं निराला ना होता !!
कब तलक दौड़ता रहूँगा,
बिना मंज़िल हवा की तरह
हर खोखली परंपरा को तार-तार कर,
अंधविश्वासों की किताब,
मैं अब जला डालूँगा !!
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तलवार व चाकू की क्या है जरूरत,
तुम्हारी तो आँखें ही कातिलाना है !!
कानों में झुमके और होठों पे लाली,
तेरे हुस्न का तो प्रिय हर कोई दिवाना है !!