ये कैसा
समंदर बन कर आए हो तुम
न मेरी कश्ती किनारे पर लगानी है
न मेरी प्यास भुझानी है !!
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सुनी जाती है यहाँ सभी की,
बस संसद थोड़ा बेहरा है !!
देश मेरा है लोकतंत्र,
बस एक रंग थोड़ा गहरा है !!
…
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नाप लिए हैं कुछ और जर्रे बेशक,
पर अभी तो पूरा आसमान बाकी है !!
वो सोचते हैं कि थक गया है परिंदा,
पर अभी तो असली उड़ान बाकी है !!
शिक्षा का, मकान का, दुकान का,
जरूरतों के हिसाब से कर्ज़ हो गया !!
“बस भर दूं अब तो EMI जैसे – तैसे”,
इंसान इसी सोच में खुदगर्ज़ हो गया !!
ज़िन्दगी में मिले लोगों का,
बस इतना सा सार है !!
जिससे मिला मन ‘वो बढ़िया’,
और बाकी सब बेकार है !!
करता रह तू कोशिशें,
जरूर कुछ सफल भी होगी !!
ढल गया गर सूरज यहाँ तो
सुबह जरूर कल भी होगी !!
आज़ाद था हर परिंदा मगर,
कुछ बातें यूँ थमी रह गई !!
जैसे बीत गई हो बरसात मगर,
आँखों में कुछ नमी रह गई !!
मिले कई दफ़ा पहले भी हम,
पर आज बात थोड़ी अजीब है !!
मृगतृष्णा निकला वो तो बस,
सोचा जो समंदर मेरे करीब है !!
लापरवाह है इतना ये दिल मेरा,
लगता नहीं ये उसके काबिल है !!
धूमिल-धूमिल सा है अक्स उसका,
पर ज़हन में वो मुकम्मल शामिल है !!
” क्यों, कहाँ, कैसे ”
खामखाँ तेरा अब कोई सवाल नहीं आता !!
तो क्या मैं समझ लूँ,
तुझे मेरा अब ख्याल नहीं आता !!