हुक्मरानों के हुक्म पे,
गज़ब का शासन चल रहा !!
दिखती नहीं इन्हें कोई लौं यहाँ,
फिर क्यों मेरा देश जल रहा !!
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सफर ये इतना आसान नहीं,
बहुत कुछ सहना होगा !!
आएंगे-जाएंगे कई लोग मगर,
तुमको चलते रहना होगा !!
तराश रहा वो इसी आस में,
काश! ये महीने भर का निवाला होगा !!
जलेगी लौं जब माटी के दीपक में,
घर किसी और के भी उजाला होगा !!
एक मंज़िल, एक डगर है मगर,
विपरीत दिशा नज़रों को अखरती है !!
वो चली जाती है ‘नीवो’ दूर मगर,
हमेशा पास से होकर तो गुज़रती है !!
गैरों को दुःख नही इस बात का,
अब तलक क्यों जीत न पाया !!
उनको गम है इस बात का,
अब तलक क्यों हार न पाया !!
दुआ मांग रहा देख कर उसे,
जो तारा अम्बर से टूट रहा !!
वाकिफ न है वो हकीकत से,
साथ उसका भी किसी से छूट रहा !!
बिमारी का किस्सा क्या शुरू हुआ,
घर में सब अपना-अपना दुःख बताने लगे !!
“कल फिर जाना है दो वक़्त की रोटी कमाने”
सोचकर ये पिता जी अपना ज़ख्म छुपाने लगे !!
देखो! शान-ओ-शौकत,
चन्द लकीरों की मोहताज नहीं !!
उसके पास भी सब कुछ है,
जिसके दोनों हाथ नहीं !!
कलयुग है ये मेरे बंधु,
यहाँ नाम जैसा न काम है !!
मन में छुपा रावण उसके,
भूमिका निभाता जो राम है !!
कुछ लोगों के ‘साथ’ में ही
गज़ब का स्वाद होता है !!
वरना यूँ किसी के चले जाने से
रोटियाँ बे-स्वाद नहीं लगती !!